हे प्रभु कब मैं, सो मुनि बनहूँ
गिरी मसान गुह, कोटर मज्झे,
बिन मालिक बिन सोधी सज्जे
दोष रहित बस्ती में बसकर
निज मस्ती में मस्त ही रह हूँ
हे प्रभु कब……
दो अनेक वा एक अकेले
सब तीरथ सब, मुनि मन मेले
शुद्ध पवन सम विहर विहर कर,
विरह राग से कबहूँ न सनहूँ
हे प्रभु कब…
ज्यों गोचरने वन को जावे
त्यों गोचरि को वन से आवे
पर परिचय में चित न लगाकर,
चित चिन्मय से बतियां करहूँ
हे प्रभु कब…
चार मास इक ठाणहिं ठाणे,
सहिहों मेघ धूप औ जाड़े
दया क्षमा सब जीवन सों धरि,
ध्यान अगनि तें, करमनि दहहूँ
हे प्रभु कब मैं, सो मुनि बनहुँ।।