
संक्षिप्त परिचय
पूर्व नाम | : | ब्र. सर्वेश जी |
पिता | : | श्री वीरेन्द्र कुमार जी जैन |
माता | : | श्रीमती सरिता देवी जैन |
जन्म | : | 13.09.1975, भाद्रपद शुक्ल अष्टमी |
जन्म स्थान | : | भोगाँव, जिला मैनपुरी (उत्तर प्रदेश) |
वर्तमान में | : | सिरसागंज, फिरोजाबाद (उत्तर प्रदेश) |
शिक्षा | : | बीएससी (अंग्रेजी माध्यम) |
भाई | : | सचिन जैन |
बहिन | : | सपना जैन |
गृह त्याग | : | 09.08.1994 |
क्षुल्लक दीक्षा | : | 09.08.1997, नेमावर |
एलक दीक्षा | : | 05.01.1998, नेमावर |
मुनि दीक्षा | : | 11.02.1998, माघ सुदी 15, बुधवार, मुक्तागिरीजी |
दीक्षा गुरु | : | आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज |
ज्ञान के भी सागर हैं, ध्यान के भी सागर हैं, गुणों के भी सागर हैं, बार-बार प्रणाम करने योग्य परम पूज्य मुनि श्री प्रणम्य सागर हैं।
“प्रणम्य” मतलब प्रणाम करने योग्य। अपने गुरु महाराज से मिले नाम को जिन्होंने सार्थक कर दिया, ऐसे अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, प्रज्ञा श्रमण, प्राकृत भाषा मर्मज्ञ, वर्तमान में श्रुत केवली समान, महायोगी, जैन दर्शन के परम ज्ञाता, अर्हं ध्यान योग द्वारा मानवता का उपकार करने वाले, परोपकार करने वाले प्राकृत भाषा को जन-जन तक पहुंचाने वाले परम पूज्य मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज के बारे में जितना लिखा जाए उतना कम है।
अपराजेय साधक संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज, आचार्य श्री के खजाने का एक नायाब अनमोल हीरा हैं। इस हीरे की चमक से एक तरफ सम्पूर्ण जिनागम प्रकाशित हो रहा है, वहीं दूसरी ओर जन समुदाय के जीवन में ज्ञान, ध्यान और योग का प्रकाश फैल रहा है।
जिस प्रकार सागर अपने अन्दर अनेक रत्नों को समाये रहता है, उसी तरह परम पूज्य मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज अपने दादा गुरु और गुरु महाराज दोनों के रत्न रूपी अनेक गुणों को अपने में समाए हुए हैं। दादा गुरु आचार्य प्रवर ज्ञानसागर जी महाराज के पद चिन्हों पर चलते हुए संस्कृत का अद्भुत, सूक्ष्म, गहन ज्ञान व लेखन और गुरु महाराज आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के पद चिन्हों पर चलते हुए उन्हीं की तरह का चुम्बकीय व्यक्तित्व, सरलता, समता, शांति मूर्ति और दोनों की तरह बहुभाषाविद, दार्शनिक कवि, कुशल काव्य शिल्पी, श्रेष्ठ चर्या पालक, कठोर साधक, चिन्तक, लेखक और जैन आगम के अनेक विषयों के आप ज्ञाता हैं।
जीवन परिचय
जन्म और परिवार –
मैनपुरी जिले के भोगाँव में 13 सितंबर, 1975 भाद्रपद शुक्ल अष्टमी के दिन माता श्री सरिता देवी जैन और पिता श्री वीरेन्द्र कुमार जैन की बगिया में एक प्यारा सा फूल खिला। जिसका नाम उन्होंने रखा सर्वेश और जिसे प्यार से सभी “रूबी” नाम से पुकारते थे। सर्वेश के जन्म के साथ ही परिवार की बगिया जैसे महकने लगी। वहां खुशियों का वातावरण छा गया।
बालक सर्वेश धीरे-धीरे बड़े होने लगे। उनके साथ उनकी छोटी बहन सपना और छोटे भाई सचिन को भी माता-पिता से धार्मिक संस्कार मिलने लगे। बालक सर्वेश तो जैसे पिछले जन्म से ही अपने अंदर वैराग्य का बीज लेकर आए थे और माता-पिता द्वारा दिए गए अच्छे और धार्मिक संस्कारों से उस बीज को पनपने का मौका भी मिल गया। माता पिता के गुणों और ‘सादा जीवन उच्च विचार’ वाले जीवन का प्रभाव बालक सर्वेश के जीवन और स्वभाव पर स्पष्ट दिखाई देने लगा।
बालक सर्वेश का स्वभाव –
बालक सर्वेश बहुत सरल स्वभावी, बुद्धिमान, सेवा भावी, परिश्रमी, व्यवहार में मधुर, कम बोलने वाले, मिलनसार और शांति प्रिय थे। वह सादा भोजन पसंद करते और लड़ाई झगड़ों से दूर रहते थे। वह ना कभी व्यर्थ घूमते, ना कभी व्यर्थ के कामों में रुचि लेते थे। खेल कूद भी उन्हें ज्यादा पसंद नहीं था। वह अपनी उम्र के अन्य बालकों से थोड़ा अलग थे। वे जब भी कुछ देखते तो उसके बारे में चिंतन करने लगते थे। बचपन से ही चिंतन करने की उनकी आदत थी जो बहुत कम लोगों में पाई जाती है।
बालक सर्वेश का चिंतन –
बालक सर्वेश जब गरीबों के जीवन को देखते तो चिंतन करने लगते – यह सब गरीब क्यों हैं? कैसे यह जीवन यापन करते हैं? ऐसी जिंदगी में इन्हें क्या खुशी मिलती होगी? ऐसे ही जब बालक सर्वेश किसी की मृत्यु को देखते तो सोचने लगते – इस व्यक्ति की मृत्यु अचानक क्यों हो गई? परिवार को छोड़कर यह कहां चला गया? संसार में कुछ सार नहीं दिखता, दुख आकर कभी भी सुख को खत्म कर देता है।
इस तरह के प्रश्न बालक सर्वेश के मन में चलते रहते थे जो दिखाते थे कि वैराग्य के बीज में अंकुर फूटने लगे हैं।
धार्मिक संस्कार –
बाल्यकाल से ही बालक सर्वेश के अंदर धार्मिक संस्कार आ गए थे। वह प्रतिदिन मंदिर जाकर देव दर्शन करते। पढ़ाई या अन्य कार्यों में व्यस्त होने पर भी मंदिर जाना नहीं छोड़ते। एक बार नगर की कुछ वृद्ध महिलाओं ने उनसे प्रतिदिन ‘तत्त्वार्थ सूत्र’ सुनाने के लिए आग्रह किया तो उन्होंने मना नहीं किया जबकि वो उस समय तत्त्वार्थ सूत्र को शुद्ध रूप में पढ़ना भी नहीं जानते थे। एक दिन में ही उन्होंने तत्त्वार्थ सूत्र का शुद्ध रूप से वाचन करना सीख लिया। फिर नियमित समय पर जाकर उन वृद्ध महिलाओं को तत्त्वार्थ सूत्र पाठ सुनाते और उनका आशीर्वाद पाते। तत्त्वार्थ सूत्र का वाचन करते करते बालक सर्वेश ने छोटी अवस्था में ही पूरा तत्त्वार्थ सूत्र पाठ ही याद कर लिया।
शिक्षा –
बालक सर्वेश शिक्षा में निपुण और मेधावी थे। वह अपनी कक्षा में हमेशा अच्छे अंक प्राप्त करते थे। हाई स्कूल बोर्ड की परीक्षा भी अच्छे अंकों के साथ उर्त्तीण करके बालक सर्वेश ने इन्टर में विज्ञान वर्ग का चयन किया। उनकी कक्षा के सभी छात्र फिजिक्स, केमिस्ट्री के ट्यूशन लेकर ही पास हो पाते थे, पर सर्वेश बिना किसी ट्यूशन के ही सबसे अधिक अंक अपनी कक्षा में प्राप्त कर लेते थे। इंटरमीडिएट की परीक्षा भी सर्वेश ने प्रथम श्रेणी में उर्त्तीण की। भविष्य में इंजीनियरिंग क्षेत्र में जाने की इच्छा से सर्वेश ने IIT की तैयारी करने का फैसला किया और इसके लिए लखनऊ जाकर कोचिंग में पढ़ाई शुरू कर दी। वे IIT की तैयारी में व्यस्त थे लेकिन स्वास्थ्य खराब हो जाने की वजह से उन्हें घर लौटना पड़ा। उनके कमजोर शरीर और स्वास्थ्य को देखकर घर के सभी सदस्य चिंतित हो गए और उन्होंने सर्वेश को आगे पढ़ाई के लिए लखनऊ ना भेजने का निश्चय किया।
परिवार के निर्णय को मानते हुए सर्वेश ने शिकोहाबाद के पी०डी० पालीवाल डिग्री कॉलेज में बी.एस.सी. पाठ्यक्रम में प्रवेश ले लिया और लगन और परिश्रम से अध्ययन कर अंग्रेजी माध्यम से स्नातक की शिक्षा पूर्ण की।
जीवन को वैराग्य पथ पर ले जाने वाली घटना –
संसार में होने वाली घटनाओं और संसार की असारता के बारे में सर्वेश का चिंतन निरंतर चलता रहता था। तभी एक ऐसी घटना घटी जिसने उन्हें झकझोर कर रख दिया और उनके जीवन की दिशा ही बदल दी।
एक दिन समाज के दो युवक जो आपस में मित्र थे और नवविवाहित थे, व्यापार संबंधी किसी कार्य से नगर के बाहर गए थे लेकिन वापस लौटते समय एक एक्सीडेंट में दोनों की मृत्यु हो गई। बालक सर्वेश उन दोनों को जानते थे और उनमें से एक उनके मित्र के बड़े भाई भी थे। यह समाचार सुनकर सर्वेश को बहुत सदमा लगा। उन्होंने अंतिम संस्कार की सभी क्रियाएं देखी तो जीवन की कड़वी सच्चाई को देखकर उनका मन दहल गया। उनके मन, मस्तिष्क में वैराग्य की लहरें उठने लगी। इस घटना के बाद सर्वेश के मन में प्रश्न उठने लगा – क्या ऐसा कोई रास्ता होगा जिससे मृत्यु को भी जीता जा सके?
समय के साथ सर्वेश अपनी पढ़ाई में व्यस्त रहे पर उनका चिंतन भी साथ साथ चलता रहा जिससे उनका वैराग्य बढ़ता गया।
जिनागम व मुनि चर्या में जिज्ञासा का बढ़ना –
शिकोहाबाद में बी.एस.सी. की शिक्षा प्राप्त करते हुए सर्वेश का परिचय सुकौशल से हुआ और दोनों घनिष्ठ मित्र बन गए। सुकौशल के पिता तन – मन – धन से दिन रात मुनिवरों, आर्यिकाओं और त्यागी व्रतियों की सेवा में लगे रहते थे। सर्वेश उनसे बहुत प्रभावित हुए। जैन धर्म और जैन चर्या से संबंधित अपनी जिज्ञासा उनके सामने रखने लगे और धार्मिक चर्चा करने लगे। संयम मार्ग और मोक्ष मार्ग के बारे में जैसे-जैसे सर्वेश की जानकारी बढ़ने लगी, उनकी रूचि भी उस और बढ़ने लगी। सर्वेश अब मुनि चर्या और उनके कठोर संयम के बारे में चिंतन करते रहते थे।
गृह त्याग –
अब सर्वेश का मुनिचर्या के प्रति आकर्षण बढ़ने लगा था। वह नगर में आने वाले मुनिवर, आर्यिका, त्यागी व्रतीजनों की सेवा का कोई अवसर नहीं छोड़ते थे। मुनिवरों के सानिध्य व उनकी सेवा करते करते सर्वेश को उनकी चर्या और जीवन को निकट से देखने का अवसर मिला और वह इतने प्रभावित हो गए कि उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया और इसी मार्ग पर चलने का निश्चय किया। सर्वेश ने 19 वर्ष की युवावस्था में संयम मार्ग पर चलने के लिए गृह त्याग कर दिया और मुनिजन व त्यागी व्रतियों की संगति में रहने लगे।
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का सानिध्य –
एक दिन रात्रि के अंतिम प्रहर के समय सपने में सर्वेश ने दो दिगंबर मुनियों के दर्शन किए। उनमें से एक मुनिवर को वह जानते नहीं थे, ना ही कभी उनको देखा था। जब फोटो देखकर उन्हें पता चला, वह मुनिवर बुंदेलखंड में विहार करने वाले तपस्वी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज हैं तो सर्वेश के मन में आचार्य श्री के दर्शन करने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हो गई। उनका मन दर्शन के लिए बेचैन हो गया। सर्वेश अपने मित्र सुकौशल के साथ आचार्य श्री के दर्शन करने के लिए कुंडलपुर पहुंच गए।
प्रथम बार आचार्य श्री का दर्शन कर दोनों मित्र इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने आचार्य श्री के समक्ष उनके चरणों में ही रहने और आगे मोक्ष पथ पर बढ़ने की अपनी इच्छा व्यक्त कर दी। अपना जीवन आचार्य श्री के चरणों में समर्पित करने के लिए निवेदन किया।
गुरुजन शिष्य की परीक्षा लेते ही हैं। सर्वेश की भी अनेक परीक्षाएं हुई। आचार्य श्री की आज्ञा अनुसार उन्हें अपने नगर वापस जाना पड़ा। वहाँ मन्दिर के एक कक्ष में रहते हुए सर्वेश नियम, व्रत, संयम, स्वाध्याय में अपना समय व्यतीत करने लगे।
वापिस आचार्य श्री के पास आने पर दोबारा फिर परीक्षा हुई, लेकिन सर्वेश के साहस, संघर्ष, सकारात्मक सोच, सेवा भाव, श्रद्धा और विनय भाव ने आचार्य श्री को प्रभावित कर दिया और वह पुण्य अवसर आ गया, जब उनको धरती के चलते फिरते भगवान समान आचार्य श्री के शिष्य बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
संस्कृत भाषा का अध्ययन –
आचार्य श्री के विहार का समय चल रहा था इसलिए उन्होंने आपको कुछ समय के लिए इंदौर के उदासीन आश्रम में रहने के लिए भेज दिया। वहां पर रहकर आपने जैन आगम के अनेक ग्रंथों का खूब पठन-पाठन और स्वाध्याय किया। कुछ समय में ही आप तत्त्वार्थ सूत्र, जीवकांड, कर्मकांड, लब्धिसार, क्षपणासार आदि ग्रंथों के ज्ञाता बन गए। यही नहीं स्वयं अभ्यास के द्वारा आपने संस्कृत व्याकरण का गहन व सूक्ष्म अध्ययन पठन भी वहां रहते हुए किया। आश्रम में कुछ दिन रहने के बाद जल्द ही, आपको आचार्य श्री के सानिध्य में रहने का अवसर प्राप्त हो गया।
संघ में अध्ययन व प्रतिमा व्रत –
आचार्य श्री के संघ में रहते हुए आप महान ग्रंथों के अध्ययन, स्वाध्याय में अपने को व्यस्त रखते थे। आचार्य श्री से जिनागम के गूढ़ तत्वों का ज्ञान प्राप्त करते और अपनी जिज्ञासाओं का समाधान पाते थे। ब्रह्मचारी अवस्था में ही आपने बहुत साहस के साथ प्रथम बार केशलोंच भी किया। संघ के गुजरात में विहार के समय आपने गिरनार पर्वत की चतुर्थ टोंक पर सप्तम प्रतिमा व्रत को धारण किया। कुछ समय बाद आचार्य श्री से “धवला ग्रंथ राज” का ज्ञान प्राप्त करते हुए दसवीं प्रतिमा के व्रत को भी उनके आशीर्वाद से ग्रहण किया।
क्षुल्लक व ऐलक दीक्षा –
आपके सरल स्वभाव, आचरण, समता से आचार्य श्री इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने आप को क्षुल्लक दीक्षा देने का निश्चय किया। 9 अगस्त 1997 को नेमावर तीर्थ क्षेत्र पर आपको क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की गई। क्षुल्लक दीक्षा मिलने के कुछ महीने बाद ही आपने अंजुली से आहार लेने का अभ्यास शुरू कर दिया।
अभी आपको दीक्षा मिले 5 महीने ही हुए थे कि आचार्य श्री ने नेमावर में ही ऐलक दीक्षा देने की घोषणा कर दी। आपके चर्या पालन और संयम ने आचार्य श्री को सन्तुष्ट कर दिया था। 5 जनवरी 1998 को आपने आचार्य श्री से ऐलक दीक्षा ग्रहण की और मोक्ष मार्ग पर तेजी से अपने कदम बढ़ा दिए।
मुनि दीक्षा –
आप हमेशा संयम, तप, साधना और अपनी चर्या पालन में मगन रहते और ग्रंथों का बहुत आनंद के साथ स्वाध्याय चिंतन, मनन करते रहते थे। आपके ज्ञान, चिंतन, अनुशासन, आचरण, कठोर तप साधना, दढ़ता के साथ चर्या पालन आदि गुणों ने आचार्य श्री के दिल को जीत लिया था। जल्द ही आपको मनुष्य जन्म का सबसे बड़ा उपहार मुनि दीक्षा मिलने की तैयारी हो गई। ऐलक दीक्षा के मात्र 31 दिन बाद ही 11फरवरी 1998, माघ मास की पूर्णिमा के दिन आपको मुनि दीक्षा प्रदान की गई और “प्रणम्य सागर” नाम आपको मिला। नाम सुनकर उपस्थित सभी श्रावकों और भक्तजनों में खुशी की लहर दौड़ गई। इतना सुंदर और गहरा अर्थ लिए हुए नाम आपको मिला और उस नाम को आपने सार्थक भी कर दिया।
विहार एवं चातुर्मास –
आचार्य श्री के सानिध्य में रहकर आपने जैन आगम के दर्शन, अध्यात्म, न्याय, सिद्धांत आदि विषयों का गहन और विस्तृत ज्ञान प्राप्त किया और अनेक ग्रंथों, टीकाओं और कृतियों की रचना की। दीक्षा के बाद 1998 से 2006 तक आचार्य श्री के ससंघ में आपके चातुर्मास हुए। उसके बाद आपको उपसंघ के रूप में सम्मेद शिखर जी की यात्रा एवं वन्दना के लिए आचार्य श्री का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। 2007 में उपसंघ के रुप में आपका पहला चातुर्मास कोतमा (मध्य प्रदेश) में हुआ।
विहार करते हुए मध्य प्रदेश के बेगमगंज (2008), सिरोंज (2009), नरसिंहपुर (2010), घंसौर (2011), गोटेगांव (2012), उज्जैन (2013), उसके बाद भिंडर, राजस्थान (2014), मंदसौर, मध्य प्रदेश (2015), बिजौलिया, राजस्थान (2016), रेवाड़ी, हरियाणा (2017), दिल्ली (2018) में आपके चातुर्मास हुए। इसके पश्चात उत्तर प्रदेश के मेरठ (2019), मुजफ्फरनगर (2020), आगरा (2021), और फिर पनागर, मध्य प्रदेश (2022) में आपके चातुर्मास सम्पन्न हुए।
आचार्य श्री विद्यासागर जी के संघ से प्रथम बार राजधानी दिल्ली में चातुर्मास –
2018 में राजधानी दिल्ली का सौभाग्य जगा और यहां पर आचार्य श्री के आशीर्वाद से आपका मंगल चातुर्मास हुआ। राजधानी दिल्ली के श्रावकों ने चतुर्थकालीन मुनि चर्या के समान जब आपकी चर्या देखी तो वह आश्चर्य से भर गए। राजधानी दिल्ली में पहली बार आचार्य श्री के संघ से आपका चतुर्मास हो रहा था। आपके व्यक्तित्व, त्याग, संयम, ज्ञान से दिल्लीवासी इतने प्रभावित हुए कि आप में ही उन्हें आचार्य श्री की झलक दिखाई देने लगी। आपके चुंबकीय व्यक्तित्व ने राजधानी दिल्ली को ऐसा आकर्षित किया कि यहां के अनेक श्रावकों ने संयम, नियम, व्रत, प्रतिमा लेकर अपने को संयम मार्ग की ओर अग्रसर किया।
राजधानी दिल्ली के बाद आपका विहार उत्तर प्रदेश की ओर हुआ। उत्तर प्रदेश के मेरठ (2019), मुजफ्फरनगर (2020) और आगरा(2021) को आपके चातुर्मास का सौभाग्य मिला।