परम पूज्य मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज की मंगल वाणी में तत्त्वार्थ सूत्र वाचना
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तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय 7 पर परम पूज्य मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज के प्रवचन श्रवण करना एक बड़े पुण्य अवसर के समान है। ये प्रवचन एक प्रकाश स्तंभ की तरह हैं, जैसे रात के अंधेरे में सड़क पर लगी lights का प्रकाश हमें गड्ढों, पत्थर, कंकड़, कूड़ा आदि से चोट खाने से बचाता है। वैसे ही ये प्रवचन अज्ञानता, अनजाने, लापरवाही एवं असावधानी से हमारे द्वारा होने वाली गलतियों की तरफ हमारा ध्यान दिला कर, उनसे होने वाले अशुभ कर्म बन्ध (बुरे भाग्य) से बचा लेते हैं।
किसी विषय के बारे में हम भले ही पहले से जानते हों, लेकिन जब पूज्य मुनि श्री की अद्भुत प्रवचन शैली में उस विषय को समझते हैं तो एक नया अनुभव होता है, जैसे कि आज यह विषय अधिक स्पष्टता और गहनता से समझ आया। गहनता से समझ आने के कारण यह विषय मस्तिष्क में भी लंबे समय के लिए सुरक्षित हो जाता है।
ये प्रवचन सभी श्रावकों के लिए बहुत उपयोगी और महत्वपूर्ण हैं। जिन्होंने श्रावकों के व्रत ले लिये हैं उनके लिए भी, जो व्रत लेने के लिए उत्सुक हैं उनके लिए भी, जो व्रतों के बारे में जानना चाहते हैं उनके लिए भी और जिन्होंने कोई व्रत नहीं लिए उनके लिए भी; क्योंकि वे भी इन प्रवचनो के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करके, अज्ञानता में होने वाले अशुभ कर्म बन्ध से अपने को बचा सकते हैं।
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प्रवचन 1 (08-Nov-2020)
(सूत्र: 1-2)
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प्रवचन 2.1 (09-Nov-2020)
(सूत्र: 3-4)
प्रवचन 2.2 (09-Nov-2020)
(सूत्र: 4-6)
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प्रवचन 3 (10-Nov-2020)
(सूत्र: 7-10)
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प्रवचन 4 (11-Nov-2020)
(सूत्र: 11-12)
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प्रवचन 5 (12-Nov-2020)
(सूत्र: 13-15)
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प्रवचन 6 (13-Nov-2020)
(सूत्र: 16-18)
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प्रवचन 7 (16-Nov-2020)
(सूत्र: 19-22)
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प्रवचन 8 (17-Nov-2020)
(सूत्र: 23-26)
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प्रवचन 9 (18-Nov-2020)
(सूत्र: 27-31)
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प्रवचन 10 (19-Nov-2020)
(सूत्र: 32-35)
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प्रवचन 11 (20-Nov-2020)
(सूत्र: 35-36)
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प्रवचन 12 (21-Nov-2020)
(सूत्र: 37-39)
सूत्र 1 – 2
व्रत अशुभ से शुभ की ओर ले जाने वाला मार्ग है। व्रत कैसे लिये जाते हैं? व्रत भी एक अनुबन्ध की तरह लिए जाते हैं। जैसे विवाह या घर की रजिस्ट्री होती है, वैसे ही व्रत लेने की भी एक प्रक्रिया होती है। यह प्रक्रिया क्या है? इसको शुभ अनुबन्ध क्यों कहा जाता है? व्रत किसकी साक्षी में लिये जाते हैं? प्रवृति रूप संवर और निवृति संवर क्या है? इन सभी बातों का ज्ञान सूत्र 1-2 पर हुए प्रवचन में मिलता है।
सूत्र 3 – 6
5 अणुव्रतों के बारे में तो हम जानते हैं, लेकिन प्रत्येक व्रत के साथ पांच-पाँच भावनाएं भी होती हैं जो उस व्रत की रक्षा करने वाले सुरक्षा चक्र की तरह होती हैं, इनके बारे में हम कम जानते हैं। इस प्रवचन में इन्हीं भावनाओं के बारे में जानकारी मिलती है, जिनके आधार पर यदि हम व्रती हैं तो अपना निरीक्षण कर सकते हैं और नहीं हैं तो भी इन भावनाओं का अभ्यास करके अपने लिए पुण्य आश्रव कर सकते हैं। मन को कैसे नियंत्रित करें? इस कठिन कार्य का उपाय मन व औषधि के रोचक उदाहरण द्वारा समझाया गया है। बाण की तरह चलने वाले वचनों को कैसे नियंत्रण कर सकते हैं? यह भी हमें यहां समझ आता है।
सूत्र 7 – 10
ब्रह्मचर्य व्रत लिया है तो उसके साथ कौन सी पांच भावना हैं जिनका ध्यान रखना है। अपरिग्रह में 5 भावनाएं कैसे भायी जाती हैं? इसकी बहुत प्रभावित करने वाली विवेचना प्रवचन में मिलती है, जो हमें साम्यभाव रखना सिखाती है। कब हम राग, कब द्वेष और कब साम्य भाव में आते हैं, यह पहचान करना भी हमें आता है। कोई भी व्यक्ति पाप से तभी बच सकता है, जब उसके बुरे फल को जानता हो। पांच पापों में ही सभी पाप समाहित हैं। इन पांच पापों के बुरे फल का ज्ञान श्रोताओं को इन प्रवचनों के माध्यम से समझ आता है और यह ज्ञान 5 पापों के सूक्ष्म रूप से भी बचाने में सहायक होता है।
सूत्र 11 – 12
संसार में हमें अनेक तरह के व्यक्ति मिलते हैं। उनमें कुछ सामान्य, कुछ दुखी, कुछ गुणी और कुछ हमारे विरोधी होते हैं। इन चारों प्रकार के व्यक्तियों के लिए, हमें मन में क्या चार भावनाएं रखनी चाहिएं? कब कौन सी भावना में आना चाहिए? उसका प्रेरणादायी वर्णन इस प्रवचन में मिलता है। संवेग एवं वैराग्य में क्या अंतर है? ये दोनों भावनाएं हमारे लिए किस प्रकार उपयोगी हैं और व्रतों को स्थिर रखने में सहायक हैं? इस बारे में भी श्रोताओं को महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
सूत्र 13 – 15
प्रमाद हमारा कितना बड़ा दुश्मन है? प्रमाद हमारे लिए और दूसरों के लिए कितना घातक है? आत्महत्या क्या होती, यह तो हम जानते हैं, पर स्वहिंसा क्या होती है? यह नहीं जानते। किस प्रकार हम चिंता, टेंशन में रहकर स्वहिंसा करते रहते हैं? जीव रक्षा के भाव के साथ सावधानी पूर्वक मन, वचन, काय की क्रियाओं से हिंसा का दोष नहीं लगेगा, पर जब तक भीतर सावधानी व जीव दया के भाव हम नहीं रखेंगे, तब तक हिंसा के भागी बने रहेंगे। इस बारे में विस्तृत रूप से इतनी उपयोगी, बहुमूल्य जानकारी इस प्रवचन से मिलती है जिसका ज्ञान प्राप्त कर हम अनजाने में होने वाली हिंसा के दोष से बच सकते हैं। इसके साथ ही सबसे बड़ा प्रमाद क्या है? वास्तव में सत्य वचन क्या है? वास्तविक रूप में कषाय की तीव्रता क्या है? कितने अहिंसक हैं हम? असावधानी से क्या अदृश्य हानि होती है? इन प्रश्नों का समाधान भी इस प्रवचन से प्राप्त होता है।
सूत्र16 – 18
बाहरी परिग्रह के बारे में तो हम जानते हैं लेकिन परिग्रह भीतरी भी होता है। भीतरी परिग्रह क्या होता है? यह पूज्य मुनि श्री के सूत्र 16 -18 के प्रवचन को सुनकर ज्ञात होता है। मूर्च्छा का मतलब बेहोश होना, ऐसा तो हम जानते हैं पर मूर्च्छा भाव क्या होता है? यह हमारे जीवन पर कैसे प्रभाव डालता है? शल्य मतलब कांटा, चाकू जो चुभ जाए। ऐसे कौन से 3 शल्य हैं जो व्रती के भी बने रहते हैं और कैसे व्रतों के लिए घातक हैं? इन सभी के बारे में ज्ञानवर्धक विवेचन इस प्रवचन में मिलता है। द्रव्यलिंगी, भावलिंगी केवल महाव्रती नहीं होते, अणुव्रती और सम्यक दृष्टि भी भावलिंगी और द्रव्यलिंगी होते हैं। इस बारे में नया चिन्तन बनता है और गलत धारणा दूर होती है। वास्तविक रुप में व्रती कौन होता है? व्रतियों के लिए सुन्दर मार्गदर्शन इस प्रवचन में मिलता है। निदान शल्य और निदान बन्ध, आलस्य और प्रमाद, मोह और मूर्च्छा का सूक्ष्म अन्तर भी यहां समझ आता है।
सूत्र 19 – 22
हम अपने को श्रावक मानते हैं, कहते हैं, पर वास्तव में श्रावक क्या होते हैं? श्रावक के तीन प्रकार कौन से हैं? इसका बहुत स्पष्ट, अति सरल वर्णन इन प्रवचन में मिलता है। हमें सबसे पहले यह समझ आता है कि हम श्रावक हैं या नहीं, और हैं तो कौन से प्रकार के श्रावक हैं? किस प्रकार हम अपने नियमों, व्रतो को बढ़ा कर आगे की श्रेणी के श्रावक बन सकते हैं। ज्ञान का ऐसा लाभ इन प्रवचन को सुनकर मिलता है जो हमें सामान् श्रावक से देशव्रती श्रावक बनने में सहायक होता है। महत्वपूर्ण सल्लेखना विषय को बहुत सूक्ष्म और सरल रूप में समझाया गया है, जिसमें मृत्यु जैसे सबसे बड़े एग्जाम को भी व्यक्ति प्रसन्नता से पास कर लेता है । इस प्रवचन के शंका समाधान में मरण समय के लिए ऐसा मार्गदर्शन मिलता है जिससे आगे के जन्म भी अच्छे बन सकते हैं।
सूत्र 23 – 31
अतिचार क्या होते हैं? अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार में क्या अंतर होता है? पूज्य मुनि श्री ने इस अन्तर को सुन्दर रोचक उदाहरण से समझाया है। व्रत लिए हैं तो उनकी रक्षा करना भी आवश्यक होता है। व्रतों में कैसे और कब अतिचार लग जाते हैं? इन दोनों प्रवचनों को सुनकर बहुत अच्छे से समझ आ जाता है। बहुत ही आत्महितकारी मार्गदर्शन इन प्रवचनों के माध्यम से प्राप्त होता है। किसी पशु या मनुष्य से अधिक कार्य लेना, किसी को कमरे में बंद कर देना, मोबाइल से गलत संदेशों को फॉरवर्ड कर देना, किसी की गुप्त बात को प्रकट कर देना, चोरी का सामान ग्रहण करना, राज्य के नियमों का उल्लंघन आदि अनेक कार्य किस प्रकार व्रत में दोष लगा देते हैं? इन प्रवचनों को सुनकर अनजाने में हो जाने वाले ऐसे अनेक कार्यों से बचा जा सकता है।
सूत्र 32 – 36
पूज्य मुनि श्री के ये प्रवचन सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथि संविभाग आदि में अज्ञानता, असावधानी एवं प्रमाद से जो हमें लग जाते हैं, उनके प्रति जागरूक करके गलतियों से बचाते हैं। निरर्थक बोलना, मन को बिना विचार किए निरर्थक बातों, सोशल मीडिया आदि में लगाए रखना किस प्रकार व्रतों में अतिचार लगा देता है। सामायिक में अनायास ही कितने तरह के दोष अतिचार लग जाते हैं, सामायिक को कैसे अच्छा बनाया जा सकता है ? सचित और प्रासुक आहार क्या होता है? सचित भोजन स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव डालता है? ये सभी उपयोगी जानकारी यहाँ प्राप्त होती है। भोजन को प्रासुक करने में भी हिंसा होती है तो फिर प्रासुक क्यों करते हैं? अनेकों बार पूछे जाने वाले इस प्रश्न का भी समाधान इस प्रवचन में मिलता है और मन का भ्रम दूर होता है। आहार दान में रुचि रखने वाले दाताओं के लिए यह प्रवचन महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनको सुनकर आहार दान के समय होने वाली सूक्ष्म गलतियों के बारे में भी पता चलता है।
सूत्र 37- 39
सल्लेखना व्रतों की परीक्षा की तरह है। सल्लेखना लेने के बाद किस तरह उसमें दोष लग जाते हैं? इस बारे में सावधान करके यह प्रवचन हमारे ऊपर बहुत बड़ा उपकार करते हैं। यह प्रवचन ऐसा ज्ञान देते हैं, जिसे ध्यान में रखकर कोई भी साधक या श्रावक जीवन की कठिन परीक्षा मृत्यु को अच्छे नंबर से पास करके मृत्यु को जीत सकता है। इसके साथ ही आहार दान की विधि, दाता के गुण, दान पात्रों के प्रकार के बारे में भी इस प्रवचन से ऐसा ज्ञान अर्जित होता है जिसके बारे में प्रत्येक आहार दाता को जानना चाहिए।
निष्कर्ष रूप में हमें रास्ता भटककर गलत राह पर जाने से रोकने वाले, राह में मिलने वाले गडढ़ो, पत्थर, कंकड़ आदि के प्रति सावधान करने वाले और सही राह पर आगे बढ़ाने वाले, ये आत्महितकारी, मार्गदर्शक प्रवचन तीव्र पुण्य से प्राप्त होने वाली बहुमूल्य सम्पदा के समान हैं।
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