हाइकू एवं मेरी अभिलाषा (गुरूचरणों में समर्पित)

रचयिता – नितिन जैन, कृष्णा नगर, दिल्ली

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गुरु ने कहा

ठहरना न वहां

कषाय  जहां

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मौन रहना

गुरु सा ने  सिखाया

आनन्द पाया

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सुखी रहता

जो बने स्वाभिमानी

गुरु की वाणी

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भीतर पाया

अहिंसा अपनाया

गुरु बताया

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निस्पृही मन

गुरुवर का धन

आत्म रमण

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अर्हं की शक्ति

गुरुवर की

मिला संबल

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मिथ्यात्व मिटे

गुरु के चरणों मे

आनन्द धाम

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निस्वार्थ मित्र

वृक्ष की छाया सम

धर्म का फल

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गुरु सा मित्र

वृक्ष की छाया सम

धर्म का फल

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गुरु आशीष

ह्रदय कमल पे

भानु किरण

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अनादि सदा

गुरु चरण बिना

अनादि रहा

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गुरु ने कहा

त्रुटि न दोहराना

प्रायश्चित है

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जौहरी सम

मेरे गुरु की दृष्टि

हीरा बन जा

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साधनों से ही

साधना है पलती

ज्ञान साधन

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धनिक बना

गुरुवर वात्सल्य

सच्ची दौलत

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अशुभ कर्म

को कहाँ शरण जो

गुरु शरण

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धन्य बनूँ

यदि गुरु विराजें

पाषाण चित्त

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मिला जो गुरु

महावैद्य तुम सा

कर्म रोग न

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मार्ग रोशन

गुरु सूरज सम

सुमन खिले

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गुरु मां सम

अंगुली थाम चलूं

नन्हे कदम

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गुरु शरण

सागर में कश्ती जो

भव के पार

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बहिर्मुखी हूँ

अकिंचन कैसे हो

गुरु सहाय

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समयसार

गुरु मुद्रा सिखाती

अब तो सीख

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गुरु पुष्कर

ज्ञान अमृत भरा

पिपासु बनूँ

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नन्हा सा पौधा

वट वृक्ष सा बना

विद्या वाटिका

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कृपा बरसी

संत शिरोमणि की

प्रणम्य गुरु

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कर्म रो पड़ें

गुरु ध्यान अग्नि में

क्षमा प्रार्थी से

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अर्हं धन दे

आत्म बल जगाया

ऋणी बना हूँ

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प्राचीन सी थी

अर्वाचीन बनाया

प्राकृत विद्या

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मानी कभी न

माने किसी की

गुरु मनाए

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गुरु की डांट

प्रेम की पराकाष्ठा

मातृत्व सम

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निज निंदा भी

बनावटी सी लगे

गुरु सहारा

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अभागा सा हूँ

गुरुचरण मिले

आचरण न

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सम्भलूँ सदा

अनिष्ट संयोग में

अर्हम ध्याऊँ

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मोक्ष शैल पे

ब्रह्मचर्य चूलिका

गुरु विजेता

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स्थितिकरण

डोलती सी नांव को

गुरु सम्भालें

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प्रशंसा सुन

अभिमान सा जागे

बधिर भला

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समता रस

रसना कैसे जाने

गुरु आदर्श

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अध्यात्म बीज

गुरुदेव ने बोया

ध्यान अंकुर

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विपरीतता

परीक्षा साधक की

गुरु सुमेरु

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नेत्रों की भाषा

समझी तो समझो

गुरु को जाना

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गुरु वचन

मील के पत्थर से

मार्ग दर्शक

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निहारूं जब

गुरु की ऋजुता को

वक्रता मिटे

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निकट पाऊँ

गुरुवर को ध्याऊँ

भीतर आऊं

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बाह्य आनन्द

निर्वृत्ति ही अहिंसा

गुरु साधक

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सीमित हूँ मैं

शब्द सा, अर्थ बन

विस्तार दे दो

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केश लुंचन

वैराग्य भूमि पर

कर्म छँटाई

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गुरु की छाया

आत्मा शीतल शांत

क्रोध सूरज

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गुरु आशीष

अशुभ शरण न

काक भगोड़ा

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गुरु की आज्ञा

सींच न कम ज्यादा

मधुर  फल

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गुरु भक्ति से

निकाचित का क्षय

निकाचित ही

                शब्द भावों की अभिव्यक्ति के साधन हैं। शब्दों से ही हम अपने मन, मस्तिष्क, हृदय में चल रहे भावों व विचारों को व्यक्त करते हैं। कम शब्दों में अपनी बात कह देना, दूसरे तक पहुंचा देना एक कला मानी जाती है। कम शब्दों में ही अपने भावों, विचारों को उतारने की एक कला का नाम है — हाइकू। इसे जापानी छंद भी कहते हैं। इसमें 3 पंक्तियों और 17 अक्षरों में अपने भाव को व्यक्त किया जाता है। प्रथम पंक्ति में 5 अक्षर दूसरी में 7 और तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर होने आवश्यक होते हैं। इस तरह हाइकू केवल कम शब्दों में ही नहीं, बल्कि अक्षरों के गणित के साथ भी अपने भाव व्यक्त करने की कला है। भावों की गहराई किसी भी हाइकू को श्रेष्ठ बना देती है।

                व्हाट्सएप ग्रुप पर परम पूज्य मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज के द्वारा रचित हाइकू काफी प्रचलित हो रहे थे। नितिन जी ने उन हाइकू की गहराइयों और भावों से प्रभावित होकर अनेक हाइकू की रचना की।

               इन हाइकू की विशेषता यह है कि इनका विषय गुरु के चारों तरफ ही घूमता है। इन हाइकू में गुरु के गुणों का गुणगान, गुरु की महिमा, उपकार, गुरु वचनों का ध्यान और गुरुभक्ति सभी का समावेश मिलता है। गुरुभक्ति में रचित ये हाइकू सभी पाठकों को प्रिय लगते हैं और गुरु के प्रति उनके श्रद्धा भावों में वृद्धि करते हैं।

इन हाइकु के साथ ही नितिन जी ने गुरु चरणों में मेरी अभिलाषा पदों के
माध्यम से अपनी भक्ति, समर्पण और अपनी अभिलाषा व्यक्त की है।

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मेरी अभिलाषा

सीमित सदा रहा हूँ

असीम होना चाहूं

गहराइयों को छूकर

गंभीर होना चाहूं ।1

बनकर तरंगनी मैं

तुझमे ही रमना चाहूँ

मेघो की गोद भरकर

जी भर बरसना चाहूँ।2

जानूं मैं तुझमे रमना

इतना नही है आसां

रस्ता कठिन है लेकिन

छोडूं  न मन की आशा।3

क्रोधी समान कंकर

का भी मिलन सहूंगा

तेरे गुण ह्रदय में रखकर

शीतल सरल बनूंगा।4

अघ लोभ से जो दूषित

संसर्ग उनका होगा

तेरे मिलन की धुन में

न ध्यान उन पे दूंगा।5

मानी समान  पर्वत

जब रास्ता न देंगे

उनके ह्रदय भिगोकर

आगे बढे चलूंगा।6

ऊंचे औ नीचे पथ जो

भयभीत जब करेंगें

माया से अपनी छलकर

पथ भृष्ट जो करेंगे।7

भयभीत मैं न हूंगा

पथ भृष्ट मैं न हूंगा

लक्ष्य जो मैंने साधा

उसे पूर्ण मैं करूँगा ।8

तुम क्षीर के हो सागर

तुम ज्ञान के हो  सागर

तुम प्रेम के हो सागर

गुरुवर प्रणम्य सागर ।9

निज ज्ञान क्षीर से तुम

जिनवर की भक्ति करते

चारित्र मेरु चढ़कर

निज आत्म ध्यान करते ।10

प्रासुक तरंगनी बन

तुम चरण छूने आऊं

रज शीश पे लगाकर

जीवन सफल बनाऊं।11

सीमित सदा रहा हूँ

असीम होना चाहूं

गहराइयों को छूकर

शुद्ध शांत होना चाहू ।12