धम्मपह (सदगं)

मोक्ष मार्ग की  दिशा दिखाकर, धर्म पथ पर आगे बढ़ने का उपाय बताता है, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी परम पूज्य मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज द्वारा रचित यह अनमोल पथ प्रदर्शक ग्रन्थ –
धम्मपह सदगं (धर्मपथ शतक)


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अमूल्य धरोहर है यह ग्रन्थ, क्यों?

     यह ग्रन्थ एक प्राकृत शतक है। प्राकृत हमारे जिनागम की प्राचीन भाषा रही है। प्राचीन समय में आचार्य भगवन्तों द्वारा इस भाषा में अनेक महान ग्रन्थों की रचना की गई है। वर्तमान समय में, प्राकृत भाषा में रचित कोई नया ग्रन्थ और वह भी प्राकृत काव्य में और इससे भी अधिक प्राकृत शतक अथार्त जिसमें 100 से भी अधिक काव्य पद हों, ऐसी कृति दुर्लभ ही देखने को मिलती है। प्राकृत काव्य में रचित यह ग्रन्थ, जिनागम के लिए एक अमूल्य धरोहर है। इस ग्रन्थ की रचना से एक तरफ जैन आगम में प्राकृत साहित्य समृद्ध हुआ है तो दूसरी तरफ, जनसामान्य के लिए भी प्राकृत भाषा में आगम का ज्ञान प्राप्त करने की, प्राचीन परम्परा को पुनर्जीवित करने में भी इस ग्रन्थ की महत्वपूर्ण भूमिका है।

क्या विशेषतायें हैं, इस ग्रन्थ में ?

 (1)  विषय वस्तु का चयन— इस ग्रन्थ में 105 प्राकृत गाथायें हैं और इन पदों के माध्यम से धर्म पथ का गहन ज्ञान प्राप्त होता है। मोक्ष मार्ग का प्रारम्भ वैराग्य से शुरू होकर शुक्ल ध्यान पर समाप्त होता है। इस ग्रन्थ में भी वैराग्य भाव से विषय शुरू होता है, उसके बाद राग का अभाव दस धर्म, सम्यग्दर्शन के आठ अंग और उसके बाद धर्म ध्यान को रखा गया है।

(2)  ग्रन्थ की विषय सामग्री से ही यह सन्देश मिल रहा है कि मोक्ष मार्ग पर आगे बढ़ना है तो पहले वैराग्य फिर राग की कमी का होना आवश्यक है। तत्पश्चात दस धर्म जब आत्मा में समा जाते हैं तो जीवात्मा को सम्यग्दर्शन भी सुलभ हो जाता है। सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का पालन करते हुए, यह जीवात्मा  धर्म ध्यान के भाव में उतरता जाता है और कर्मों का क्षय कर  मोक्ष प्राप्ति द्वारा, अपने धर्म पथ को पूर्ण कर लेता है। इस प्रकार मोक्ष मार्ग  के लिए महत्वपूर्ण विषयों को एक क्रम में इस ग्रन्थ में समाहित कर लिया गया है।

(3)  ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही प्राकृत भाषा में बारह भावना को पढ़ा जा सकता है। हिन्दी भाषा में तो हम अनेक बारह भावना पढ़ते रहते हैं, श्रवण करते हैं, इस ग्रन्थ में प्राचीन प्राकृत भाषा में बारह भावना पढ़ने का, उन्हें कंठस्थ  करने का, अवसर प्राप्त होता है। 

(4)  ग्रन्थ में समाहित प्राकृत गाथाओं में, ग्रन्थ के रचियता पूज्य मुनि श्री का मौलिक चिन्तन भी देखने को मिलता है। भले ही इस ग्रन्थ की विषय सामग्री देखकर, यह प्रतीत हो कि हमें इस विषय का ज्ञान है, परन्तु जब इस ग्रन्थ का स्वाध्याय किया जाता है तो पूज्य मुनि श्री का मौलिक ज्ञान और नया चिन्तन भी हमें प्राप्त होता है। यह नया मौलिक चिन्तन पाठकों के ज्ञान में वृद्धि करता है और उन्हें आनन्द की अनुभूति कराता है। 

(5)  गाथाओं के मध्य में ही दो-तीन शब्दों के सुभाषित पद (सूक्ति वचन) भी मिलते हैं जिनको पुस्तक के अन्त में, परिशिष्ट – 3 में भी दिया गया है। यह सुभाषित पद हमारे जीवन के लिए ऐसे ही उपयोगी हैं जैसे कि गुरुजन की ओर से, जीवन जीने के लिए कोई सूत्र, मार्गदर्शन या टिप्स का मिलना होता है। लघु होने के कारण इन्हें कंठस्थ करना भी बहुत सरल है।

(6)   प्राकृत भाषा में सूत्र के रूप में, ये सुभाषित पद कंठस्थ हो जाते हैं तो श्रावकों में आत्मविश्वास और उत्साह दोनों ही बढ़ते हैं कि हम प्राकृत भाषा में भी कुछ सूत्र जानते हैं।

(7)  ग्रन्थ में प्राकृत गाथाओं को समझना है सरल, कैसे?

 यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा जानने वालों के लिए तो आनन्द का स्रोत है ही पर जो सामान्यजन प्राकृत भाषा नहीं जानते, उनको भी इस ग्रन्थ की विषय वस्तु को समझने में कोई कठिनाई नहीं होती। इसके अनेक कारण है— 

(a) ग्रन्थ में प्रत्येक प्राकृत गाथा के लिए एक शीर्षक दिया गया है जिससे गाथा का विषय समझ आ जाता है।

(b) गाथा में संयोजित प्राकृत शब्दों का हिन्दी में अर्थ भी दिया गया है जिससे गाथा का अर्थ तो समझ में आता ही है, साथ ही प्राकृत भाषा के नए-नए शब्दों का अर्थ भी ज्ञात हो जाता है। 

  (c) प्राकृत- हिन्दी शब्दार्थ के पश्चात, प्रत्येक गाथा का हिन्दी भाषा में अर्थ दिया गया है। इस कारण गाथा की विषय सामग्री को समझना अति सरल हो जाता है।

(d)  हिन्दी के साथ ही अंग्रेजी भाषा में भी गाथाओं का अर्थ इस ग्रन्थ में उपलब्ध कराया गया है जिससे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी, अन्य देशों में जैन आगम के ज्ञान का प्रचार और प्रभावना हो सके एवं अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाला युवा वर्ग भी ग्रन्थ का अध्ययन करके अपना ज्ञान बढ़ा सके।

(e)  ग्रन्थ के अन्त में 4 परिशिष्ट दिए गए हैं जिससे ग्रन्थ की विषय वस्तु और प्राकृत भाषा दोनों का ज्ञान प्राप्त करने में बहुत सहायता मिलती है।

 (8)  इतना ही नहीं, ज्ञान से भरपूर तो यह ग्रन्थ है ही, इसके अतिरिक्त अनेक जिज्ञासाओं का समाधान भी इसमें प्राप्त हो जाता है। उदाहरण के लिए -धर्म क्या है? राग से रहित जीव क्या सोचता है? ये जीव भक्ष्य-अभक्ष्य; का विचार क्यों नहीं करता? यह जीव ना करने योग्य कार्य क्यों कर बैठता है? लोभी व्यक्ति क्या सोचता है? किस सत्य को जाने बिना मुक्ति का सुख नहीं मिलता? अभय दान मुख्य क्यों हो जाता है? निजानुभूति करने वाला जीव क्या सोचता है? प्रशस्त राग क्या है? आदि।

(9)  इस ग्रन्थ में वैराग्य भाव, चार कषाय, दस धर्म, सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का ज्ञान, एक विशिष्ट प्रकार से समाहित किया गया है जिससे ज्ञान के साथ-साथ, हम अपना परीक्षण भी कर सकते हैं कि हमारे आचरण में वैराग्य, कषाय, सम्यग्दर्शन,  क्षमा आदि धर्मों का कितना समावेश है और कितना नहीं है।

(10)  ग्रन्थ की विषय वस्तु  में धर्म ध्यान को भी स्थान मिला है। प्राकृत गाथाओं के माध्यम से धर्म ध्यान, अर्हं ध्यान योग, अर्हं प्राणायाम और कायोत्सर्ग का इतना अद्भुत ज्ञान मिलता है कि जिसको धर्म ध्यान करने में रुचि ना आती हो, उसको भी ध्यान करने का मन करने लगता है।

(11)  इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में गौतम गणधर स्वामी की स्तुति भी दी गई है। गौतम गणधर स्वामी के गुणों और महिमा का वर्णन करने वाली यह स्तुति अनुपम है।  दीपावली पर्व पर गौतम स्वामी की पूजा, अर्चना करने के लिए, जो किसी स्तुति का अभाव अनुभव होता था, उस अभाव की पूर्ति, यह स्तुति कर देती है।

(12)  इस ग्रन्थ में  प्राकृत भाषा में नवदेवता स्तुति और अन्त में जिनवाणी स्तुति को भी समाहित किया गया है जिससे इन दोनों स्तुतियों को भी पढ़ने और कंठस्थ करने का अवसर ग्रन्थ के माध्यम से प्राप्त होता है।

निष्कर्ष रूप मेंवैराग्य की नींव से धर्म ध्यान की ऊंचाई तक पहुंचा देने वाला, यह ग्रन्थ एक बहुमूल्य, उपयोगी धरोहर है। इसकी प्रत्येक प्राकृत गाथा में गागर में सागर की तरह, इतना गहन और उपयोगी ज्ञान भरा पड़ा है जिसका चिन्तन, मनन, इस मनुष्य जन्म को सफल बनाने में बहुत सहायक साबित हो सकता है।

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