परम पूज्य मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज ने अपने गुरुमहाराज, संत शिरोमणि आचार्य भगवन विद्यासागर जी महामुनिराज के प्रति अनुपम भक्ति भावों से भरकर, अपार विनय एवं समर्पण भावों के साथ अनेक रचनाओं का सृजन किया है। गुरु महाराज के प्रति अपार श्रद्धा व विनय भाव को प्रकट करता हुआ, संस्कृत और प्राकृत भाषा में सृजित प्रथम चंपू काव्य, *अनासक्त महायोगी*, संस्कृत में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का पूजन, गुरु स्तुति, संस्कृत अष्टक, अनेक सुन्दर भजन, आदि ऐसी ही अद्भुत रचनाएं हैं।
इन्हीं रचनाओं की श्रंखला में, पूज्य मुनि श्री द्वारा संस्कृत में रचित *विद्याष्टकम* गुरु महाराज के चरणों में समर्पित अभूतपूर्व रचना है।
पूज्य मुनि श्री द्वारा रचित विद्याष्टकम को यहां पढ़ा जा सकता है, उन्हीं की आवाज में श्रवण किया जा सकता है और विडियो देखा जा सकता है। साथ ही श्रवण करते हुए इसके गायन की लय भी सीखी जा सकती है–
सुश्रीमतीह जननी च पिता मलप्पा
जज्ञे द्वितीयतनयो भुवि योऽद्वितीयः।
विद्याधरोऽपि सुतरां हृदयस्थविद्यो
विद्यादिसागरमुनीन्द्र! हरारिविद्याः।।1।।
पापास्पदानि निविड़ानि विभञ्जनार्थं
पुण्यास्पदानि विविधानि विवर्धनार्थम्।
कर्माणि वर्यवर! ते शरणं दधेऽहं
प्रीणातु मां भवहरं चरणारविन्दम् ।।2।।
सद्दृष्टिबोधचरणावरणैकभूषा-
सदवीर्यवासिततपोधरणैकवेषम्।
यस्यांगदेवनिलयस्य विभूषणं स्यात्
तस्य प्रवन्द्यचरणं परिणौमि भक्तया ।।3।।
यस्मान्भवद्विशददेहमनोविचेष्टास्
स्याद्वादगुम्फितवचाः प्रमुदे विशुद्धाः।
तस्मात् सदैव सुजनैः परिवेष्टमानश्
चन्द्रो यथा वियति राजति तारकाभिः ।।4।।
संसारसिन्धुमतुलं तरितुं तु कोऽलं
यस्मिन् विमूढमनसा विगतोऽतिकालः।
विद्यापते! गुरुगुरो! कृपया महाध्व
प्राप्तो मयाऽपि भवतो भवतः सुरक्षा ।।5।।
नाशीर्वचः कमपि पश्यति नापि दृग्भ्या-
मात्यन्तिकं विरतभावमुखं विधत्ते।
तस्मादहं भगवतोप्यनुभामि शस्यो
नम्रे जने वितनुते रतिमेष सूरि ।।6।।
येनैध्यते विनयमूलमुदस्य दोषं
ज्ञानार्क भूरिकिरणैर्भुवि पुण्यसस्यम्।
क्षिप्तं क्षणं प्रतिनवं जगतां हिताय
किं चिन्त्यते नु महते सुगुरोर्हिताय ।।7।।
यावत्प्रतिष्ठत इला गगनाम्बुराशि-
र्मार्तण्डकारितदिवारजनीविभागः।
यावत्प्रवन्द्यजिनचैत्यवृषञ्च भूमौ
तावत्तनोतु सुगुरोर्गुणकीर्तिगानम् ।।8।।
विद्यावार्धेः शुभकरकृपाबाणविद्धं शिरो मे
बोधेर्लाभो विबुधचरितं चास्तु तुल्यात्मभावः।
कामारातीभमददलने साहसं पापताति-
दूरे प्रास्तां हृदयसरसीष्टं चिरं वर्धतां वा ।।9।।
- अर्थ : इस भारतदेश के दक्षिण प्रान्त में श्रेष्ठ माता श्रीमती और श्री मलप्पा पिता थे। जिनका द्वितीय पुत्र विद्याधर हुआ। जो पृथ्वी पर द्वितीय पुत्र होकर भी अद्वितीय था। विद्यायें जिनके अधरों पे रहते हुए भी अच्छी तरह से उन्हें हृदयस्थ थीं, इस विरोधाभास का परिहार यह है कि विद्याधर उनका नाम था और उन्हें सभी विद्यायें हृदयस्थ थी। ऐसे श्री विद्यासागर आचार्य! हमारी दुष्ट विद्याओं का नाश करें।
- अर्थ : हे श्रेष्ठ पुरुषों में श्रेष्ठ ! मैं आपकी शरण को धारण करता हूँ क्योंकि मुझे पाप के स्थानभूत सघन कर्मों का विनाश करना है और पुण्य के स्थानभूत अनेक प्रकार के कर्मों की वृद्धि करना है। इस संसार का विनाश करने वाले आपके चरण कमल मुझे प्रसन्न करें।
- अर्थ : सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का आवरण ही जिनका भेष है। समीचीन शक्ति से युक्त तप को धारण करना ही जिनका प्रमुख गहना है। जिस चैतन्य निलय के ये ही आभूषण हैं। उनके वन्दनीय चरणों को मैं भक्ति से नमस्कार करता हूँ।
- अर्थ : चूँकि आपके सुन्दर शरीर और मन की चेष्टाएँ विशुद्ध हैं तथा वचन स्याद्वाद से गुंथे रहते हैं इसीलिए आप सदैव श्रेष्ठजनों से घिरे हुए सुशोभित हैं, जिस प्रकार आकाश में अनेक ताराओं के साथ घिरा हुआ चन्द्र सुशोभित होता है।
- अर्थ : यह संसार सागर अपार है, इसे तैरने के लिए कौन समर्थ हो सकता है। इस संसार सागर में मेरा मूढ़बुद्धि से बहुत काल बीता है। हे अनेक विद्याओं के स्वामिन्! हे गुरुओं के गुरु! आपकी कृपा से मुझे भी अब इस संसार सागर से पार करने का महान् रास्ता मिल गया है। इसलिए इस संसार से आप मुझे बचायें।
- अर्थ : भगवान् न तो किसी को आशीर्वचन कहते हैं, न ही आँखों से देखते हैं और अत्यन्त उदासीन भावरूप मुख को धारण करते हैं, इसलिए मैं भगवान् से भी ज्यादा प्रशंसनीय इन आचार्य देव को समझता हूँ क्योंकि ये आचार्य देव अपने नम्रजनों में रति को बढ़ाते हैं।
- अर्थ : जो दोषों को उखाड़कर विनय रूपी जड़ को बढ़ाते हैं और ज्ञान रूपी सूर्य की बहुत-सी किरणों से पुण्य रूपी फसल को जो बढ़ाते हैं। जिनका प्रत्येक नया समय जगत् के हित के लिए गुजरता है, ऐसे श्रेष्ठ गुरु के हित के लिए क्या चिन्ता करना? अर्थात् ऐसे गुरु का अपना हित तो स्वयं हो रहा है उसमें दूसरों को सोचने की जरूरत नहीं है।
- अर्थ : जब तक यह धरती है, आकाश है, समुद्र की राशि है और सूर्य के द्वारा किया गया दिन-रात का विभाग है तथा जब तक वन्दनीय जिनचैत्य और जिनधर्म भूमि पर है तब तक मेरे श्रेष्ठ गुरु के गुणों की कीर्ति का गायन फैलता रहे।
- अर्थ : आचार्य श्री विद्यासागरजी के शुभ हाथों की कृपा रूपी बाणो ने मेरा शीश हमेशा विद्ध रहे। मुझे सम्यग्ज्ञान का लाभ हो, मुझे विशिष्टज्ञानियों का चरित्र प्राप्त हो, सभी में मेरा समान भाव रहे, काम रूपी शत्रु हाथियों का मद नाश करने का मुझमें साहस आये, पाप का समूह मुझसे दूर ही रहे और मेरे हृदय रूपी सरोवर में चिरकाल तक इष्ट की वृद्धि होवे।