परम पूज्य मुनि श्री 108 प्रणम्य सागर चंद्र सागर जी पूजन
रचयिता – श्री नितिन जैन, कृष्णा नगर, दिल्ली

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मुक्ति वधु भी हरपल जिनको, वरण करन को बुला रही
निर्मल ज्ञान की गंगा जिनकी, हरपल अमृत पिला रही
जग के सब गुण देख जिसे, उसने माना अपना वर है
तीन रत्न से शोभित ऐसे, परम दिगम्बर मुनिवर हैं
उन रत्नों को पाने ही गुरु, शरण तुम्हारी आया हूँ
हृदय कमल पर आन विराजो, तुम्हे मनाने आया हूँ
ॐ ह्रीं परम् पूज्य गुरुदेव मुनि श्री 108 प्रणम्य सागर चन्द्र सागर मुनिन्द्र अत्र अवतर अवतर समवोषठ आह्वानन
ॐ ह्रीं परम् पूज्य गुरुदेव मुनि श्री 108 प्रणम्य सागर चन्द्र सागर मुनिन्द्र अत्र तिष्ठ ठः ठः स्थापन
ॐ ह्रीं परम् पूज्य गुरुदेव मुनि श्री 108 प्रणम्य सागर चन्द्र सागर मुनिन्द्र अत्र मम सन्नहितो भव भव वषठ संनिधि करणम
सागर में जो लहरें उठतीं, वैसा भाव रहा मेरा
जिनवाणी कल्याणी सम्यक, पर चंचल था मन मेरा
शंकाओं के भवर जाल में, फंसा रहा आतम मेरा
काल अनंता बीत गए पर मिथ्या मल ने था घेरा
गुरु प्रणम्य की सम्यक वाणी, मिथ्या मल का करे विनाश
चरण कमल में जल प्रक्षालन पाने को निशंकित भाव
ॐ ह्रीं मुनि श्री 108 प्रणम्य सागर चन्द्र सागर जी मुनिन्द्र निःशंकित गुण प्राप्ताय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
आकांक्षा भोगों की गुरुवर, हर पल मुझे सताती है
चार कषायों की ज्वाला भी, मन का ताप बढ़ाती है
ऐसा झुलस गया हूं गुरुवर, निज स्वरूप भी खोया हूं
इसलिए तुम चरणों में गुरु, आकर मैं तो रोया हूँ
चन्दन सम तुम चरण कमल रज, यह संताप मिटाएगी
सांसारिक चन्दन सुगन्ध न निःकांक्षित कर पायेगी।
ॐ ह्रीं मुनि श्री 108 प्रणम्य सागर चन्द्र सागर जी मुनिन्द्र निःकांक्षित गुण प्राप्ताय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन मुनिजन सुधिजन की आत्मा तीन रत्न से शोभित है
तप से कर्कश है जड़ काया, तीन लोक में पूजित हैं
ऐसे सुधिजन से कर ग्लानि, गुरुवर न बच पाया हूं
निर्विचिकत्सा गुण अति दुर्लभ, खोकर पतित कहाया हूँ
समता धारी गुरुवर मेरे, समकित मुझको कर देना
अक्षत धवल चढ़ाता गुरुवर, पतित भाव क्षय कर देना
ॐ ह्रीं मुनि श्री प्रणम्य सागर चन्द्र सागर मुनिन्द्राय निर्विचिकत्सा गुण प्राप्ताय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
भटकाते मिथ्या के जो पथ विषय भोग में सने हुए
ऐसे कु-पथ की सेवा में समय गवाया मूढ़ बने
विषय भोग की दुरित वासना, सुध बुध खो देती सारी
समय गवाया इनमें रमकर भूल हुई मुझसे भारी
ऐसा मूढ़ यदि हूँ गुरुवर , कैसे पाऊं निज गुण को
द्रष्टि तुम सम पाने को ही, पुष्प चढाऊँ मैं तुमको
ॐ ह्रीं मुनि श्री 108 प्रणम्य सागर चन्द्र सागर मुनिन्द्राय अमूढ़ द्रष्टि गुण प्राप्ताय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
रस पूरित भोजन खाकर भी यह रसना न तृप्त हुई
पर निंदा करने में फिर भी देखो कैसी शक्त हुई
जिन निर्बल ओर अज्ञ जनों से जिन मारग में दोष लगा
खूब करी उनकी जग निंदा, मानो तृप्त हुई जिव्हां
निर्बल तो मेरा आतम है इसको सबल बनाना है
कर गुणगान प्रणम्य गुरु का, उपगुहन पा जाना है
ॐ ह्रीं मुनि श्री 108 प्रणम्य सागर चन्द्र सागर मुनिन्द्राय उपगुहन गुण प्राप्ताय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
किंचित लोभ से भी जब, भविजन करण शिखर से गिर जाएं
चार कषायों से पीड़ित हूँ, कैसे भाव सम्भल पाएं
स्वयम संभालें निज भावों को, नमन है ऐसे मुनिवर को
गुरु कहूँ क्या अपनी कहानी, कैसे पाऊं निजपुर को
गुरु आपकी ज्ञान ज्योति ही, सम्यक दीप जलायेगी
मिथ्या की यह घोर अमावस, किंचित न रह पाएगी
ॐ ह्रीं मुनि श्री 108 प्रणम्य सागर चन्द्र सागर जी मुनिन्द्राय स्थितिकरण गुण प्राप्ताय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कुटिल बना हूँ, जटिल बना हूँ, किंचित प्रेम स्वभाव नहीं
कैसे पाऊं गुरु तुमको ,जब करता सम व्यवहार नहीं
मान कषाय की अग्नि में धू -धू करके जलता हूँ
कितनी भी यह धूप चढाऊँ, फिर भी नही संभलता हूँ
गुरु तुम वात्सल्य की गंगा ही कुटिल भाव धो पाएगी
सहज शुद्ध सम भाव दिलाकर, सिद्धालय पहुंचाएगी
ॐ ह्रीं मुनि श्री 108 प्रणम्य सागर चन्द्रसागर मुनिन्द्राय वात्सल्य अंग प्राप्ताय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
नहीं प्रयोजन फिर भी सम्यग मार्ग दिखाते हो गुरुवर
भटक रहे भक्तों को सुख की राह दिखाते हो गुरुवर
जिन मार्ग प्रकाशित करके निज मार्ग दिखलाते हो
अ-हं से अर्हं की यात्रा करना तुम सिखलाते हो
गुरु आपके चरण कमल में आज यही फल पाना है
जिन महिमा सबको बतलाकर मोक्ष पथिक बन जाना है
ॐ ह्रीं मुनि श्री 108 प्रणम्य सागर चन्द्र सागर मुनिन्द्राय मार्ग प्रभावना गुण प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यकदर्शन मुकुट सुसज्जित, सम्यक ज्ञान की ले तलवार
सम्यक चारित्र अश्व चढ़े हैं, चार दिशायें हैं पोशाक
कर्म शत्रु भी कापें थर थर, घुटने टेक चरण में माथ
गुरुवर हमको क्षमा करो, हमरी नही कोई औकात
करुं साष्टांग नमन तुमको गुरु, अष्ट अंग ये पाने को
रची ये गुरुवर तुमरी पूजा, परम् मोक्ष सुख पाने को
ॐ ह्रीं मुनि श्री 108 प्रणम्य सागर चन्द्र सागर मुनिन्द्राय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
जीवन पथ पर चलते चलते, गुरु मिले मुझे ऐसे एक।
जैसे ध्रुव तारा हो नभ में, तारों बीच चमकता नेक।
वाणी उनकी इतनी कोमल, जो सूरज की उजली किरण।
सुख देती जो ऐसा मन को, जैसे आया हो सावन।
संध्या जो दिखता सागर, वैसा उनका हृदय विशाल।
अपने प्रेम के जल से जिसने किया हमें है बहुत निहाल।
सरल हैं इतने गुरुवर मेरे, जैसे बहता झरना हो
कंकर पत्थर सहकर भी जो, कल कल बहता रहता हो
स्वच्छ सरोवर सा मन उनका, कमल खिले हों, ऐसे भाव
उन भावों की स्वच्छ सुगंध से, पुलकित सब भक्तों के भाव
वो अपने में लीन हैं रहते, भक्त रहें उनमें लवलीन
मुक्ति पथ के राही वो तो, चलते होने को स्वाधीन
यूँ तो वो बस शांत ही रहते, अपने में ही लीन सदा
नेत्रों से बातें कर लेते, हम भक्तों से यदा कदा
अहं से अर्हं की यात्रा, करते हैं मेरे गुरुवर
विद्या सिंधु के ज्ञान सीप में, मोती से मेरे गुरुवर
शब्दों की गागर में तुझ सा सागर भरना मुश्किल है
फिर भी रोक न पाया खुद को, तू सांसो में शामिल है।
यही भावना यही कामना
चरण कमल में रहे ये माथ
प्रणम्य रज को पाकर उनकी
मोक्ष मार्ग पर करू प्रयाण।
ॐ ह्री परम् पूज्य गुरुवर मुनि श्री 108 प्रणम्य सागर चन्द्र सागर मुनिन्द्राय रत्नत्रय प्राप्ताय अर्ध्य निर्वपामीति स्वाहा।
विद्या गुरु महावीर सम, तुम गणधर गुरुदेव
चरण कमल तुम शरण से, मिले मुक्ति स्वमेव
“नितिन” करे भक्ति सदा, जब तक तन में श्वांस
संयम पथ पर ले चलो,गुरुवर अपने साथ|
इत्याशिर्वाद पुष्पांजलि ॥
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नीतिन जी द्वारा लिखा गया यह गुरु पूजन केवल पूजन ही नहीं है, समपर्ण व भक्ति का दर्शन भी है। सम्पर्ण, भक्ति, आत्मनिन्दा, विनय, गुरु गुणगान का संयोग इस पूजन को अनूठा बना देता है।
इसके साथ ही सम्यक दर्शन के अंगों को आधार बनाकर कवि ने यह पूजन रचा है। इस पूजन में एक ओर सम्यकदर्शन के अंगो का ज्ञान सामान्य जन को होता है, वहीं आत्मानिन्दा के द्वारा प्रतिक्रमण जैसा फल भी इस पूजन से मिलता है। भक्ति के साथ समर्पण की चरम सीमा पुण्य संचय को भी बढ़ा देती है।
जयमाला भक्ति का ऐसा सरोवर है जिसको पढ़ने वालों के हृदय कमल खिल जाते हैं और वे बार बार उसे पढ़ना चाहते हैं। समय-समय पर प्रात: काल इस पूजन के साथ भक्तगण गुरु चरणों में अपने भाव समर्पित करते हैं।