वड्ढमाण सामि थुदि
(वर्धमान स्वामी स्तुति)

.

.

.

वड्ढमाणं जिणं धम्मतित्थंकरं

भव्वजीवाण सच्चं पहदेसगं।

भावार्थ: धर्म तीर्थंकर वर्धमान जिन हैं वह भव्यजीवों को सत्य पथ के देशक हैं।

पंचमे दुस्समे अम्हि काले तुमं

मे समक्खं सदा होहि वरभावणं।

वीयरागस्स चरणं हि सरणं परं

वड्ढमाणं जिणं धम्मतित्थंकरं ।।१।।

भावार्थ: इस पंचम दु:षम काल में आप मेरे समक्ष सदा रहो यही श्रेष्ठ भावना है। वीतराग के चरण ही परम शरण हैं।

जण्णहिंसा णिसिद्धा कदा जेण सा

जस्स माहप्पमेदं ण वचिगोयरा।

‘जीवहि जीवयंतु’ त्ति संदेसगं

वड्ढमाणं जिणं धम्मतित्थंकरं ।।२।।

भावार्थ: यज्ञ की वह हिंसा जिन्होंने निषिद्ध की, जिनकी यह महिमा वचन गोचर नहीं है। ‘जिओ और जीने दो’ का संदेश आपने दिया है।

दद्दुरो जस्स पूयासुभावं गदो

मिच्चुणा जो खणेणग्गसग्गी भवो।

चंदणा भत्तिबद्धा य पाव‌इ सुहं

वड्ढमाणं जिणं धम्मतित्थंकरं ।।३।।

भावार्थ: दर्दुर जिनकी पूजा के शुभभाव को प्राप्त हुआ जो मरकर क्षणभर में अग्र स्वर्ग में जन्म लिया। भक्ति से बद्घ चंदना सुह को प्राप्त होती है।

पूयचरणं हि चित्ते चिट्ठदुमुदा

सम्ममग्गं सुदिट्ठं लहेमु सदा

इत्थमेवज्ज! भावस्स कुरु पूरणं

वड्ढमाणं जिणं धम्मतित्थंकरं ।।४।।

भावार्थ: मेरे चित्त में आपके पवित्र चरण प्रसन्नता से तिष्ठें। आपके द्वारा दिखाया गया सम्यक् मार्ग सदा प्राप्त करूँ। इस प्रकार ही हे आर्य मेरे भावों की पूर्ति करो।

Posted in Prakrat Stuti.

Comments will appear after approval.

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.