सिद्ध स्तुति

सिद्ध शुद्ध लोकाग्र विराजित मेरा आतम शुद्ध बने
असंख्यात आतम देशों में गुण अनन्त हों प्रकट घने
समकित श्रृद्धामय सिद्धों सी निज आतम में हो संलीन
सम्यक केवल ज्ञान प्रभा में लोक आलोक रहे नितलीन।

समकित दर्शन गुण में नित ही निज पर का नित दर्शन हो
गुण अनन्त को धारण करने की शक्ति भी निजपन हो

ऐसा ही हो सूक्ष्म परिणमन जैसा सिद्ध प्रभू का है
बादर परिणति नित्य निरादर-आदर का घर जैसा है।

सिद्ध शुद्ध अवगाहित कर लो अपने अवगाहन गुण में
गुरू लघु भेद मिटा के बैठें तव सम अगुरूलघु गुण में
व्याबाधा से रहित निराकुल निराबाध का अनुभव हो
अष्ट गुणों में गुण अनन्त का सिद्ध समान हि अनुभव हो।

Posted in Bhajan.

Comments will appear after approval.

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.