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ग्रीष्म की धूप में, शीत की धुंध में
वर्षा में तरू तले, ठूंठ से जो खड़े
सबका परमात्मा, बन गया आत्मा
खुद में ही खो गये हैं।
हम उन्हीं के हो गये हैं।।
नग्न जर्जर सी देह, ज्ञान करुणा सनेह
शाम का सूर्य था, कृत्य का बोध था,
पदवी को छोड़कर, मोह को तोड़कर
दे उजाला, जगत से गये हैं।
हम उन्हीं के हो गये हैं।।
ज्ञान रवि की तपन, विद्याधर का बदन
विद्या ज्योति जली, जग की प्रज्ञा जगी
शिष्य को गुरू बना, ज्ञान देकर घना
देह को बस बदल जो गये हैं।
हम उन्हीं के हो गये हैं।
मेरे गुरु हैं महाँ, इन-सा जग में कहाँ
पाया जब से दरश, हुआ सम्यक दरश,
हो समाधि मरण, फिर से हो गुरु मिलन
इक यही कामना कर चले हैं।
हम इन्हीं के हो गये हैं।।